Thursday, July 29, 2010

यदि विश्व में सोने के तख्त पर कोई व्यक्ति बैठता है तो वह एक व्यक्ति भारत का गुरू शंकराचार्य ही है।

ऐसा नहीं है कि हमारा देश भुखमरों का देश है इसलिए भुखमरी है, गरीबों का देश है इसलिए गरीबी है और लाचारी व बेरोजगारों का देश है इसलिए लाचारी व बेरोजगारी है। इसके विपरीत तथ्य यह है कि हमारे देश में 15 प्रतिशत लोगों के पास इतना धन , इतना सोना, और इतना बैंक जमा है कि विश्व के पचासों देशों की पूरी जनसंख्या के पास होगा। हमारा देश कर्ज में डूबा है परंतु हमारे देश के इन 15 प्रतिशत (सवर्णों) के विदेशी खाते में जमा धन के ब्याज से ही भारत का पूरा कर्जा एक साल में उतर सकता है।
हमारे देश में 10 लाख मंदिर हैं जो अरबों-खरबों के सोने चांदी और अनेक आभूषणों से भरे पड़े हैं। यदि विश्व में सोने के तख्त पर कोई व्यक्ति बैठता है तो वह एक व्यक्ति भारत का गुरू शंकराचार्य ही है। कुछ समय पूर्व अभी एक शंकराचार्य की मृत्यु हुई थी तो उसका शव भी सोने के तख्त पर लिटाया गया था। भारत में 5 प्रतिशत उच्च जातीय जमींदार हैं जिनमें एक-एक के पास 10-10 हजार एकड़ भूमि के फ़ार्म हैं। इन जमींदारों के पास भी अरबों-खरबों की सम्पत्ति है। इनमें कुछ राज-घराने के लोग हैं जिनके पास अब भी अरबों-खरबों के खजाने हैं, स्वर्ण महल हैं और निजी हवाई जहाज हैं। ये जमींदार और सामन्त अपनी बेटी और बेटे के विवाहों में रत्न जड़ित गलीचों का बिछोना बिछाते हैं।
भारत का वैश्य वर्ग भी कम नहीं है। वह सुई से लेकर रेल, हवाई जहाज तक का उद्योग चलाता है। सोना-चांदी, हीरे जवाहरात , तस्करी का माल, गाय की चर्बी और जीवित इन्सानी बच्चों तथा स्त्रियों के साथ ही वह आदमी के खून तक की तिजारत करता है। खाद्य-पदार्थों, दवाओं और जहर तक में मिलावट कर धन बटोरता है। आज देश की एक तिहाई पूंजी उसके पास है।
सच यह है कि हमारा 85 प्रतिशत भारत गरीब है, भूखा है, नंगा है, बेघरबार है और लाचार है पर 15 प्रतिशत सवर्ण लोग धन की उबकाई करते हैं और इनके कुत्ते कारों में सफर करते हैं, पांच सितारा होटलों में पुडिंग और मलाई खाते हैं जिसकी उन्हें बदहजमी हो जाती है। भारत के भूगोल में जहां एक तरफ शहरी कूड़े-करकट के ढेरों के बीच सड़े गले प्लास्टिक और फूंस से ढकी मिट्टी या बांस के खम्बों की खड़ी दलितों की झोंपड़ियां हैं तो दूसरी ओर वहीं हिन्दुओं की बहुमंजिली इमारतें, ऊंचे-ऊंचे रंगमहल और शीशमहल बने हुए हैं। एक तरफ पेट भरने के लिए मेहनत मजदूरी भी पर्याप्त नहीं है तो दूसरी ओर हिन्दुओं के ऊंचे-ऊंचे औद्योगिक प्रतिष्ठान हैं, दुकानें, कारखाने हैं और भूमि के हजारों-हजारों एकड़ फार्म हैं। एक तरफ जहां दलितों का अपना कोई प्राइमरी स्कूल तक नहीं है वहीं दूसरी ओर हिन्दुओं के अपने डिग्री कॉलेज, मेडिकल कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। एक तरफ दलित गरीब के पास चलाने को टूटी साइकिल भी नहीं है तो दूसरी ओर एक-एक हिन्दू, सेठ, साहब और सन्यासी के पास 50-50 काफिलों में चलने वाली विलायती कारें हैं। दलित दरिद्र के मनोंरंजन का साधन मात्र उसकी पत्नी और उसके बच्चे हैं, जबकि हिन्दू महन्त, मठाधीश, ज़मींदार, शरमाएदार और सेठ चोटी से पैर तक अय्यासी में डूबे हुए रहते हैं। एक तरफ दलित मासूम बच्चों को 40-40 रूपये में पेट की खातिर बाजार में बेच देते हैं वहीं इन हिन्दुओं के अपने मसाजघर, मनोरंजन थियेटर, नाचघर, जुआघर और मयखाने हैं जहां जीवित मांस का व्यापार होता है।
हमारा देश गरीब है यह चीख-पुकार एक नाटक है, लाचारी है, हमारे देश में बेरोजगारी है यह भी एक नाटक है। गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी किसी देश में तब कही जा सकती है जब गरीबी, बेरोजगारी , लाचारी और भुखमरी से सब प्रभावित हों। हमारे देश में ऐसा नहीं है। हमारे यहां करोड़ों गरीब हैं और करोड़ों नंगे भी हैं। सच यह है कि हमारे यहां 15 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जो सोना खाते हैं और सोने का ही वमन करते हैं। यहां मूल समस्या समाज में हिस्सेदारी की है। यदि 15 प्रतिशत के पास जमा सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात के धन में हिस्सेदारी कर दी जाये तो भारत में एक भी व्यक्ति न भूखा सो सकता है न एक भी व्यक्ति नंगा रह सकता है। तब एक भी व्यक्ति न बेघरबार रह सकता है और न तब एक भी व्यक्ति बेरोजगार रह सकता है। यदि धर्मालयों का धन बाहर निकाल दिया जाय, भूमि का भूमिहीनों में वितरण कर दिया जाय और उद्योगों के लाइसेंस में एक व्यक्ति एक उद्योग कर दिया जाए तो हर तबाही तुरन्त दूर हो सकती है अथवा देवालयों, भूमि और उद्योग-व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाय तो हमारा देश 132 वें स्थान से उठकर आज ही 32 वें स्थान पर आ सकता है।
देश की इस गर्दिश के लिए कौन उत्तरदायी है यह एक खुली किताब है। यह इन मुठ्ठी भर उच्च हिन्दुओं की स्वार्थ, शोषण दमन और भेदभावपूर्ण नीति का परिणाम है।

-पृ. 1-3, हिन्दू विदेशी हैं, लेखक एस.एल.सागर, सागर प्रकाशन 223 दरीबा,मैनपुरी, उ.प्र., द्वितीय संस्करण 1999 से साभार

Wednesday, July 28, 2010

डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म क्यों त्यागा ?

‘‘इस प्रश्न का उत्तर सरल है। यह जटिल विषय नहीं है। जैसा कि हम सब जानते हैं डॉ. अम्बेडकर एक अछूत परिवार में जन्मे थे। इस तरह उन्हें व्यक्तिगत कडुवे और विकट अनुभव का ज्ञान था कि सवर्ण हिन्दू जातियों द्वारा उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार किया जाना कैसा लगा। उन्होंने यह भी देखा कि उनका अनुभव अपूर्व नहीं था, बल्कि भारत भर में करोड़ों अन्य लोगों के साथ भी ऐसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता था। बहुत वर्षों तक डॉ. अम्बेडकर ने सवर्ण हिन्दुओं को अपना व्यवहार बदलने और इसमें सुधार लाने के लिए समझाने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। अन्ततः वे इस नतीजे पर पहुंचे कि कम से कम व्यवहारिक रूप में हिन्दू धर्म और छूतछात एक दूसरे से अलग होने वाले नहीं हैं, और यदि कोई मनुष्य अपने आपको छुआछूत की दुर्गति से मुक्त करवाना चाहता है, जाति-पांति की लानत से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे हिन्दू मत को एकदम तिलांजलि देनी होगी। इसलिए 1935 में उन्होंने ऐलान किया,

‘यद्यपि मैं हिन्दू जन्मा हूं , मैं हिन्दू मरूंगा नहीं।‘

संक्षेप में , यही कारण था कि डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को त्यागा। उन्होंने देखा कि हिन्दू धर्म में अछूत के रूप में पैदा हुए मनुष्य के लिए मानव की तरह सुशीलता और शान से जीवन व्यतीत करना असम्भव है।‘‘

डॉ. अम्बेडकर की सच्ची महानता : संघरक्षित, पृष्ठ 32 से साभार

Saturday, July 24, 2010

श्री शरीफ जी ने दुनिया की सबसे संकीर्ण जाति के मिथकों में से एक उपदेश ढूंढने में सफलता पाई, परंतु नजर पड़ गई .दिये।झूठी है यह कहानी।

श्री शरीफ जी ने दुनिया की सबसे संकीर्ण जाति के मिथकों में से एक उपदेश ढूंढने में सफलता पाई, परंतु नजर पड़ गई हमारी और हमने उनकी सफलता पर बेरियों के कांटे बिखेर दिये।झूठी है यह कहानी। 1-अगर गांधारी को भूख लगी थी तो किसी भी मृत राजा के रथ से भोजन लेकर खा सकती थी क्योंकि जो राजा लड़ने आये होंगे वे अपने साथ भोजन पानी भी तो लाए होंगे।2-सुज्ञ जैसे लोग बताते हैं कि महाभारत का युद्ध परमाणु अस्त्रों से लड़ा गया था। सो वहां तो परमाणु विकिरण ने सारे पेड़ और लाशें ही जला डाली होंगी। फिर वहां मृतक और बेरी का पेड़ होना असंभव है।3-इसके बावजूद यह सच्ची बात है कि भूख बहुत पीड़ा और अपमान देती है।4-इस बात को आप दलितों के जीवन की, बाबा साहब के जीवन की सच्ची घटनाओं के माध्यम से भी तो कह सकते थे, क्यों ?5-परंतु आपको तो सवर्णों के दिलों को जीतना है । उनकी कारों और कोठियों से आप रूआब खाते हो।6-आपको सच से सरोकार नहीं है बल्कि आपको तो बुढ़ापे में थोड़ी सी वाह वाह चाहिये।7-अरे वाह वाह तो दलित भी कर सकते हैं। थोड़ा आप उनकी तरफ कदम बढ़ाकर तो देखें।उस झूठी कहानी का एक भाग दिखाता हूं आप सभी लोगों को - महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात् कौरवों की मां गान्धारी अपने सभी सौ पुत्रों के मारे जाने के समाचार से आहत होकर युद्ध क्षेत्र का अवलोकन करने पहुंची और जब अपने एक पुत्र के शव को पड़े देखा तो बिलखकर रोने लगी। इस मन्ज़र को देखकर वहां उपस्थित लोगों के हृदय भी द्रवित हो गए परन्तु इसके पश्चात् जब उसका एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे शव से लिपटकर रोने का क्रम जारी हुआ तो इस हृदय विदारक दृश्य ने सभी उपस्थित जनों को विचलित कर दिया। वहां उपस्थित लोगों के आग्रह पर श्री कृष्ण ने इस शोकपूर्ण वातावरण को बदलने का उपाय इस प्रकार से किया कि गान्धारी को भूख का एहसास करा दिया। इस प्रकार वह भूख से इतनी विचलित हुई कि अपने पुत्रों की मृत्यु के दुःख को भूलकर पेट की भूख मिटाने का उपाय सोचने लगी। चारों ओर नजर दौड़ाने पर एक बेरी का वृक्ष दिखाई पड़ा जिसपर एक बेर लगा हुआ था। अपनी क्षुधापूर्ति हेतु गान्धारी ने उस बेर को तोड़ने का प्रयास किया परन्तु वहां तक हाथ न पहुंच पाया। हाथ बेर तक पहुंचे, इसके लिए जो तरकीब अपनाई गई उसका वर्णन रोंगटे खड़े करने देने वाला तो है ही साथ ही उससे यह भी ज़ाहिर होता है कि भूख से जो पीड़ा उत्पन्न होती है वह सारे दुःखों पर भारी है। वर्णन कुछ इस प्रकार है जब बेर तोड़ने के लिये गान्धारी का हाथ वहां तक नहीं पहुंच पाया तो नीचे ज़मीन पर पड़े हुए अपने एक पुत्र के शव को पेड़ के नीचे तक खींच कर लाई और उस पर चढ़कर प्रयास किया परन्तु हाथ फिर भी बेर तक न पहुंच पाया। फिर दूसरे पुत्र का शव खींच कर लाई और उसको पहले पुत्र के शव के ऊपर रखा परन्तु फिर भी सफल न हो पाई। चूंकि वहां आस पास उसी के पुत्रों के शव पड़े थे इसलिये वह उन्हीं को एक के बाद एक लाती रही और बेर तोड़ने का प्रयास करती रही। इस दिल हिला देने वाली घटना के बाद भूख को गान्धारी ने इस प्रकार से बयान है -

वसुदेव जरा कष्टम् कष्टम दरिद्र जीवनम्।
पुत्रशोक महाकष्टम् कष्टातिकष्टम परमाक्षुधा।।

अर्थात् हे कृष्ण! बुढ़ापा स्वयं में एक कष्ट है। ग़रीबी उससे भी बड़ा कष्ट है। पुत्र का शोक महा कष्ट है परन्तु इन्तहा दर्जे की भूख सारे कष्टों से भी बड़ा कष्ट है। ध्यान रहे गान्धारी ने स्वयं यह सारे कष्ट झेले थे।

Wednesday, July 21, 2010

चिपलूनकर जी! आप खुद अपने तन की सबसे अद्भुत अंग पर हाथ रखकर कसम खाकर कह दीजिये कि आपने कभी कोई ब्लॉग मेरे प्रोफ़ाइल जैसा नहीं बनाया ?, अनवर जमाल जी वाह।

क्या कभी नदी के दो किनारे कभी मिल सकते हैं ?
क्या कभी रात दिन मिल सकते हैं ?
क्या उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव भी कभी मिल सकते हैं ?
क्या कभी सुरेश चिपलूनकर और अनवर जमाल एकराय हो सकते हैं ?हां नदी के दो किनारे मिल सकते हैं अगर उसपर पुल बन जाये ।
हां रात और दिन मिल सकते हैं अगर सांझ हो जाये।
उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव भी मिल सकते हैं अगर ....
इस अगर के बाद का जवाब आपके लिये छोड़ दिया ताकि आपके पंखों और उनकी उड़ान की क्षमता भी मैं चेक करता रह सकूं और समय आने पर उन्हें कतर सकूं।
राष्ट्रवादी चिपलूनकर और सुधारवादी अनवर जमाल भी एकमत हो सकते हैं अगर मुसीबत उनके चेले पर पड़ जाये । वह दोनों को गुरूतुल्य कहता है।
अब यह पता नहीं कि उनका गुरू है कौन ?
जिनके तुल्य इन दोनों को उनके साझा शिष्य महक जी मानते हैं ।दोनों ने उन्हें समझाया परंतु उनकी समझ में तो तब आये जब वे समझना चाहें।जब उन्हें अपने गुरूओं के दिशा निर्देश को मानना ही नहीं है तो काहे को दिखावे के लिये उन्हें गुरूतुल्य कहकर उनके हाथ में इज्जत की लॉलीपॉप थमाते हैं जी ?
अनवर जमाल जी मेरे विचार भांप रहे हैं और समय उपयुक्त पाकर उनका अंतिम संस्कार करेंगे, वाह।हम इंतिजार करेंगे उस समय का, बिल्कुल पक्का।खुद वेद और रामायण में कमियां बताएं तो रिसर्च और सच कहलाये और वही काम हम कहलायें तो वे हमपर गुर्रायें, ठीक भी है, पठान रूलिंग क्लास में ही तो आता है, क्षत्रिय ही तो ठहरा। क्षत्रिय अपने बराबर किसी दलित को कैसे मानेगा वह तो दलित का अंगूठा या फिर गर्दन ही मांगेगा।
चिपलूनकर जी! आपने कहा कि मेरा प्रोफ़ाइल ठीक नहीं है।अगर मुझे अपने पैरों पर दो रोटी कमाने के लिये बचे रहना है तो मेरा प्रोफ़ाइल ऐसे ही ठीक है। आप खुद अपने तन की सबसे अद्भुत अंग पर हाथ रखकर कसम खाकर कह दीजिये कि आपने कभी कोई ब्लॉग मेरे प्रोफ़ाइल जैसा नहीं बनाया ?
क्या आपने उससे कभी टिप्पणी नहीं की या उसपर टिप्पणी नहीं पाई ?
अगर आप झूठ बोलेंगे तो आपके उस अंग पर खतरा मंडराने लगेगा जैसे कि आजकल सवर्णों की रोजी रोटी पर आरक्षण के कारण मंडरा रहा है और परेशान सुज्ञ फिर रहा है प्रस्ताव लाता हुआ ।

Monday, July 19, 2010

‘ब्लाग संसद सवर्ण ब्लागर्स का हस्तमैथुन है, हस्तमैथुन के परिणाम वास्तव में बहुत बुरे होते हैं।‘ महक जी के आरोप के खण्डन में सत्य गौतम का रोचक उद्घाटन

महक जी ! मैंने जो देखा और सोचा वह आपके सामने रख दिया। बहन जी सी.एम. हैं और दलित पिट रहे हैं, आपने कह तो दिया लेकिन यह देखने की जरूरत न समझी कि दलित क्यों पिट रहा है और उसे पीटने मारने वाले लोग कौन हैं ?
वे लोग हैं आपके सहजाति सवर्ण।
बहन जी के होने से यह लाभ तो है कि पीड़ित की रिपोर्ट दर्ज हो जाती है और उसे निश्चित अवधि में मुआवजा मिल जाता है जबकि जहां सी.एम. सवर्ण जाति से है वहां तो यह भी नहीं हो पाता। कानून में तो मर्डर करना भी मना है लेकिन क्या किसी भी प्रदेश में हत्या का होना रूक गया है ?
अपराध के पीछे जो मूल कारक तत्व होते हैं, जो सामाजिक सोच होती है उसे बदले बिना किसी भी अपराध का सफाया नहीं किया जा सकता। दलितों के प्रति किये जाने वाले अपराधों के पीछे भी सामाजिक सोच उत्तरदायी है और इसे कोई भी सी.एम. अपनी राजनैतिक ताकत के बल से नहीं बदल सकता। आपको बहन जी के मूर्ति लगाये जाने से बड़ा कष्ट पहुंच रहा है और जो हर चैराहे पर दलितों का दमन करने वालों को देवता बनाकर उनकी मूर्तियों की पाखण्डपूर्ण पूजन-अर्चन किया जा रहा है क्या वह जनता के धन-श्रम का दुरूपयोग नहीं है ?
हरेक आदमी कमजोर की तरफ ही लपकता है , आप भी मुझे कमजोर देखकर ही गरजे । कोई मुझे कैरानवी बता रहा है और कोई महक । भूमि का क्या जोड़ आकाश से और मैं तो भूमि भी नहीं पाताल हूं। संसद बनाने से क्या होगा ?कानून अगर बुरा भी हो लेकिन उसे लागू करने वाले कुशल और न्यायप्रिय हों तो रिजल्ट अच्छा आता है लेकिन अगर आपने कानून अच्छा भी बना लिया तो क्या ? अगर उसे लागू करने वाले ही भ्रष्ट हुए।
भ्रष्टाचार कैसे मिटे ?
प्रश्न यह है लेकिन आप मूल प्रश्न का समाधान न खोजकर चिंतक बनने की धुन पाले हुए हैं। मैं आपको समस्या से उसकी प्रकृति और वास्तविकता से परिचित करा रहा हूं लेकिन आप मुझे कुएं का मेंढक कह रहे हैं। उतर गया आपका उदार और नर्म बनने का सारा ढोंग ?
कुवांरे लड़के जवान होते हैं। उनकी जवानी एक जवान साथी मांगती है लेकिन वह उनके पास होता नहीं तो वे क्या करते हैं ?
वे हस्तमैथुन करते हैं। उन्हें तृप्ति मिल जाती है। उन्हें लगता है कि उनकी समस्या का समाधान हो गया परन्तु उनकी समस्या का समाधान वास्तव में तब होता है जब उनका विवाह हो जाता है।
‘ब्लाग संसद‘ सवर्ण ब्लागर्स का हस्तमैथुन है, आभासी जगत का अद्भुत हस्तमैथुन है यह। हस्तमैथुन के परिणाम वास्तव में बहुत बुरे होते हैं। आप भी यह देर सवेर यह जान ही जाएंगे।

Saturday, July 17, 2010

ब्लागिंग आपके लिए एक व्यसन है एक अय्याशी है। आप नेता न बन सके आप संसद में न जा सके तो आप ने एक आभासी संसद बना ली है।

महक जी ! आप अनवर जी के ब्लाग पर आये तो आपको चन्द सवर्णों से परिचय हो गया , अगर आप किसी दलित के ब्लाग पर गये होते तो आपके दिव्य दृष्टि क्षेत्र में आज कुछ दलित भी जरूर होते। आप कह सकते हैं कि मैं किसी ब्लाग पर दलित सवर्ण देखकर नहीं जाता। चलिए मान लिया लेकिन मुद्दा देखकर तो जाते हैं क्या आपको किसी दलित चिंतक की बात में दम ही नजर न आया।
आप के पास सब कुछ है । ब्लागिंग आपके लिए एक व्यसन है एक अय्याशी है। आप नेता न बन सके आप संसद में न जा सके तो आप ने एक आभासी संसद बना ली है। किसी वीडियो गेम की तरह खेलते रहिये इसे। क्षमा कीजिये मैं ठोस काम में यकीन करता हूं। कभी आपको निष्पक्ष और ठोस काम करते देखूंगा तो खुद आकर सम्मिलित हो जाउंगा। अभी तो यह मृग मरीचिका आपको और आपके जैसे पेट भरों को ही मुबारक हो। यह लेख मैं कल पोस्ट करता लेकिन नेट गड़बड़ा गया था। यह लेख आज भी प्रासंगिक है।

Friday, July 16, 2010

हिन्दूइज्मः धर्म या कलंक -एल. आर. बाली

हिन्दू निश्चित तौर पर उदार व सहनशील नहीं है।
हिन्दू से ज्यादा संकीर्ण व्यक्ति दुनिया में कहीं नहीं है।

- जवाहर लाल नेहरू
मुखपृष्ठ , हिन्दूइज्मः धर्म या कलंक
यह अंश एल. आर. बाली,संपादक-भीम पत्रिका, की पुस्तक ‘हिन्दूइज़्म : धर्म या कलंक‘ से साभार उद्धृत है। मिलने का पता : ईएस-393 ए, आबादपुरा, जालंधर 144003

Thursday, July 15, 2010

आओ मानवता के उत्थान और विकास के लिए वैज्ञानिक विचार पद्धति को अपनाएं।

सत्य गौतम अभावों की कोख से जन्मा हुआ और जीवन के घावों को ढोने वाला एक ऐसा बदनसीब इंसान है जिसे किसी से प्यार के बोल सुनने नसीब न हुए, न आज न पहले। सत्य गौतम केवल सत्य गौतम है, अगर कैरानवी होता तो अच्छा होता। उसे अपने अभावों और घावों की पूर्ति के लिए किसी ‘रब‘ का आसरा तो है। यहां तो ‘अप्प दीपो भवः‘ होना पड़ता है। वह परलोक आत्मा और तकदीर को मानता है यहां इसका कोई अनुभव नहीं है। जिसका अनुभव ही नहीं है उसे मानना मेरा काम नहीं है और उसके इंकार में समय लगाना भी मैं अपनी ऊर्जा गंवाना ही मानता हूं।मैं सत्य को कम जानता हूं और असत्य को पूरा। सम्मान की केवल परछाईयां ही देख पाया हूं जबकि तिरस्कार और अपमान हर पल मुझे डसते रहते हैं। यह डंक और यह पीड़ा मुझे उनसे मिलती है जो ‘धर्म परिवर्तन‘ के विरूद्ध स्वर मुखर करते रहते हैं। उनकी गल्ती भी मैं नहीं मानता ‘हिंदू ग्रंथ‘ उनका मन ऐसा ही बना देते हैं। जिसे वे धर्म समझते हैं वही मेरी और मेरे समाज की पीड़ा का मूल कारण है जिसे मैं समय के साथ नष्ट होते हुए देखने का सोने जैसा अवसर पाकर खुश हूं। अपनी खुशी को SHARE करने के लिए ही मैंने यह ब्लाग बनाया है और जो मैंने जिस समाज से पाया है वही उस समाज को लौटा रहा हूं। जो सच देखा है भोगा है जाना है समझा है वही आपको बता रहा हूं। सच को झेलना हरेक के बस की बात नहीं है और विशेषकर आप जैसे धंुधग्रस्त के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। मुझे पता है कि हिंदू परंपराओं के रखवालों ने टीवी चैनल्स तक पर हमले किये हैं। बाबा साहब की ‘द रिडल्स आॅफ हिंदूइज्म‘ पर भी बैन लगवाया है। आज भी स्थिति बहुत अधिक बदली नहीं है इसीलिये सामने नहीं आ सकता और किसी ब्लागर के लिये सबके सामने आना जरूरी भी नहीं है।
आपके सामने आने के आग्रह से संदेह होता। क्या करेंगे आप मुझे अपने सामने पाकर या लाकर ?
आप मेरी बात देखिये , आप मेरे तर्क देखिये , आप भी अपने तर्क लाईये और बताईये कि आपने दलितों को कितना अपनापन और सम्मान मिला है।कैरानवी के समुदाय से मुझे कभी अपमान नहीं मिला , कभी उनके साथ बैठकर आत्म ग्लानि का अहसास नहीं हुआ। मैं कैरानवी को तो नहीं जानता लेकिन उनके भाई बंधुओं के बर्ताव को मैंने करीब से देखा है।उनकी ज्यादा तारीफ इस डर से नहीं करूंगा कि अब मुझे कोई अन्य मुस्लिम कह दिया जाएगा । बस इतना कहना चाहूंंगा कि मैं केवल मैं हूं अन्य नहीं । आने वाला समय इसे बिल्कुल साफ कर देगा जैसे कि पानी बरसने के बाद आकाश हो जाता है।
अंत में
कैरानवी की बिरादरी से कहूंगा कि आपके भी सब काम ठीक नहीं हैं लेकिन मैं उन पर लिखकर दो मोर्चे एक साथ नहीं खोलना चाहता , इसलिए चुप हूं और मेरे समुदाय को उससे कोई लाभ भी नहीं है , हां नुक्सान अवश्य है। इसके बादईश्वर , धर्म और मरणोपरांत फल संबंधी बातों में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। कल जो भी हो लेकिन मैं आज को जीना चाहता हूं। आज का जीवन सरल हो सफल हो इसके लिए जो भी विधि हो उसे पकड़ा जाना चाहिये बाकी समस्त चीजे तज देने योग्य हैं। आओ मानवता के उत्थान और विकास के लिए वैज्ञानिक विचार पद्धति को अपनाएं।

Wednesday, July 14, 2010

‘ब्राह्मणों ने पुराणों में क्या लिखा और स्त्री का चित्रण एक भोग्या के रूप में क्यों किया ?‘ , जानिये सवर्ण लेखकों के लेखन से.


‘ब्राह्मणों ने पुराणों में क्या लिखा और स्त्री का चित्रण एक भोग्या के रूप में क्यों किया ?‘ , जानिये सवर्ण लेखकों के लेखन से ताकि इसे दलितों का द्वेषपूर्ण साहित्य न कहा जा सके।


हम इस बात की चर्चा करेंगे कि स्त्रियाँ अपनी इस निर्मित या आरोपित छवि के बारे में क्या राय रखती हैं। इसको जानने के लिए हम उन्हीं ग्रन्थों का परीक्षण करेंगे जिनकी चर्चा हम पीछे कर आये हैं। लेख के दूसरे भाग में वि.का. राजवाडे की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास' के पृष्ठ १२८ से उद्धृत वाक्य को आपने देखा। इसी वाक्य के तारतम्य में ही आगे लिखा है,

‘‘यह नाटक होने के बाद रानी कहती है - महिलाओं, मुझसे कोई भी संभोग नहीं करता। अतएव यह घोड़ा मेरे पास सोता है।....घोड़ा मुझसे संभोग करता है, इसका कारण इतना ही है अन्य कोई भी मुझसे संभोग नहीं करता।....मुझसे कोई पुरुष संभोग नहीं कर रहा है इसलिए मैं घोड़े के पास जाती हूँ।'' इस पर एक तीसरी कहती है - ‘‘तू यह अपना नसीब मान कि तुझे घोड़ा तो मिल गया। तेरी माँ को तो वह भी नहीं मिला।''

ऐसा है संभोग-इच्छा के संताप में जलती एक स्त्री का उद्गार, जिसे राज-पत्नी के मुँह से कहलवाया गया है। इसी पुस्तक के पृष्ठ १२६ पर अंकित यह वाक्य स्त्रियों की कामुक मनोदशा का कितना स्पष्ट विश्लेषण करता है, ‘‘बाद में प्रगति हासिल करके जब लोगों को अग्नि तैयार करने की प्रक्रिया का ज्ञान हुआ तब वे वन्य लोग अग्नि के आस-पास रतिक्रिया करते थे। किसी भी स्त्री को किसी भी पुरुष द्वारा रतिक्रिया के लिए पकड़कर ले जाना, उस काल में धर्म माना जाता था। यदि किसी स्त्री को, कोई पुरुष पकड़कर न ले जाए, तो वह स्त्री बहुत उदास होकर रोया करती थी कि उसे कोई पकड़कर नहीं ले जाता और रति सुख नहीं देता। इस प्रकार की स्त्री को पशु आदि प्राणियों से अभिगमन करने की स्वतंत्रता थी। वन्य ऋषि-पूर्वजों में स्त्री-पुरुष में समागम की ऐसी ही पद्धति रूढ़ थी।'' यह कथन निर्विवाद रूप से स्त्रियों की उसी मानसिकता का उद्घाटन करता है कि वे संभोग के लिए न केवल प्रस्तुत रहती हैं, बल्कि उनका एकमात्र अभिप्रेत यौन-तृप्ति के लिए पुरुषों को प्रेरित करना है।इस तरह के दृष्टांत वेद-पुराण इत्यादि में भी बहुततायत से उपलब्ध हैं।

यहाँ ऋग्वेद के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं -मेरे पास आकर मुझे अच्छी तरह स्पर्श करो। ऐसा मत समझना कि मैं कम रोयें वाली संभोग योग्य नहीं हूँ(यानी बालिग नहीं हूँ)। मैं गाँधारी भेड़ की तरह लोमपूर्णा (यानी गुप्तांगों पर घने रोंगटे वाली) तथा पूर्णावयवा अर्थात्‌ पूर्ण (विकसित अधिक सटीक लगता है) अंगों वाली हूँ।(ऋ. १।१२६।७) (डॉ. तुलसीराम का लेख-बौद्ध धर्म तथा वर्ण-व्यवस्था-हँस, अगस्त २००४)कोई भी स्त्री मेरे समान सौभाग्यशालिनी एवं उत्तम पुत्र वाली नहीं है। मेरे समान कोई भी स्त्री न तो पुरुष को अपना शरीर अर्पित करने वाली है और न संभोग के समय जाँघों को फैलाने वाली है।(ऋ. १०/८६/६) ऋग्वेद-डॉ. गंगा सहाय शर्मा, संस्कृत साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण १९८५)हे इन्द्र! तीखे सींगों वाला बैल जिस प्रकार गर्जना करता हुआ गायों में रमण करता है, उसी प्रकार तुम मेरे साथ रमण करो।(ऋ. १०/८६/१५) (वही)ब्रह्म वैवर्त पुराण में मोहिनी नामक वेश्या का आख्यान है जो ब्रह्मा से संभोग की याचना करती है और ठुकराए जाने पर उन्हें धिक्कारते हुए कहती है, ‘‘उत्तम पुरुष वह है जो बिना कहे ही, नारी की इच्छा जान, उसे खींचकर संभोग कर ले। मध्यम पुरुष वह है जो नारी के कहने पर संभोग करे और जो बार-बार कामातुर नारी के उकसाने पर भी संभोग नहीं करे, वह पुरुष नहीं, नपुंसक है।(खट्टर काका, पृ. १८८, सं. छठाँ)इतना कहने पर भी जब ब्रह्मा उत्तेजित नहीं हुए तो मोहिनी ने उन्हें अपूज्य होने का शाप दे दिया। शाप से घबराए हुए ब्रह्मा जब विष्णु भगवान से फ़रियाद करने पहुँचे तो उन्होंने डाँटते हुए नसीहत दिया, ‘‘यदि संयोगवश कोई कामातुर एकांत में आकर स्वयं उपस्थित हो जाए तो उसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जो कामार्त्ता स्त्री का ऐसा अपमान करता है, वह निश्चय ही अपराधी है। (खट्टर काका, पृष्ठ १८९) लक्ष्मी भी बरस पड़ीं, ‘‘जब वेश्या ने स्वयं मुँह खोलकर संभोग की याचना की तब ब्रह्मा ने क्यों नहीं उसकी इच्छा पूरी की? यह नारी का महान्‌ अपमान हुआ।'' ऐसा कहते हुए लक्ष्मी ने भी वेश्या के शाप की पुष्टि कर दी।(वही, पृष्ठ १८९)विष्णु के कृष्णावतार के रूप में स्त्री-भोग का अटूट रिकार्ड स्थापित करके अपनी नसीहत को पूरा करके दिखा दिया। ब्रह्म वैवर्त में राधा-कृष्ण संभोग का जो वीभत्स दृश्य है उसका वर्णन डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी' ने अपने लेख ‘कृष्ण और राधा' में करने के बाद अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में व्यक्त किया है, ‘‘पता नहीं, राधा कृष्ण संभोग करते थे या लड़ाई लड़ते थे कि एक संभोग के बाद बेचारी राधा लहूलुहान हो जाती थी। उसके नितंब, स्तन और अधर बुरी तरह घायल हो जाते। राधा मरहम पट्टी का सामान साथ रखती होगी। राधा इतनी घायल होने पर प्रति रात कैसे संभोग कराती थी, इसे बेचारी वही जाने। (सरिता, मुक्ता रिप्रिंट भाग-२) इस प्रतिक्रिया में जो बात कहने को छूट गयी वह यह है कि इस हिंसक संभोग, जिसे बलात्कार कहना ज्यादा उचित है, से राधा प्रसन्न होती थी जिससे यही लगता है कि स्त्रियाँ बलात्कृत होना चाहती हैं।History of prostitution in india के पृष्ठ १४७ पर पद्म पुराण के उद्धृत यह आख्यान प्रश्नगत प्रसंग में संदर्भित करने योग्य है। एक विधवा क्षत्राणी जो कि पूर्व रानी होती है, किसी वेद-पारंगत ब्राह्मण पर आसक्त होकर समर्पण करने के उद्देश्य से एकांत में उसके पास जाती है लेकिन ब्राह्मण इनकार कर देता है। इस पर विधवा यह सोचती है कि यदि वह उस ब्राह्मण के द्वारा बेहोशी का नाटक करे तो वह उसको ज+रूर अपनी बाँहों में उठा लेगा और तब वह उसे गले में हाथ डालकर और अपने अंगों को प्रदर्शित व स्पर्श कराकर उसे उत्तेजित कर देगी और अपने उद्देश्य में सफल हो जाएगी। निम्न श्लोक उसकी सोच को उद्घाटित करते हैं - सुस्निग्ध रोम रहितं पक्वाश्वत्थदलाकृति।/दर्शयिष्यामितद्स्थानम्‌ कामगेहो सुगन्धि च॥मैं उसको पूर्ण विकसित पीपल के पत्ते की आकार की रोम रहित मृदुल और सुगंधित काम गेह(योनि) को (किसी न किसी तरह से) दिखा दूँगी क्योंकि - बाहूमूल कूचद्वंन्दू योनिस्पर्शन दर्शनात्‌।/कस्य न स्ख़लते चिन्तं रेतः स्कन्नच नो भवेत्‌॥यह निश्चित है कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिसका वीर्य किसी के बाहु-युगल, स्तन-द्वय और योनि को छूने और देखने से स्खलित न होता हो।ये कुछ दृष्टांत हैं स्त्रियों के काम-सापेक्ष प्रवृत्ति की निर्द्वन्द्व स्वच्छंदता के, जो वर्तमान नारी-विमर्श के परिप्रेक्ष्य में गहन वैचारिक मंथन की मांग करते हैं।