Monday, June 28, 2010

नपुंसक वृद्ध राजा दशरथ ने तीन पुरोहितों से ''अपनी तीनों रानियों से सम्भोग करने की प्रार्थना की।'' - पेरियार रामायण

http://www.tadbhav.com/dalit_issue/tasber_ka_dusra.html#tasber तद्भव से साभार
पेरियार रामायण इस दृष्टि से अस्मितामूलक अध्ययन की प्रस्तावना भी है। समस्या केवल यह है कि उसमें पौराणिक कथाओं के विखंडन के साथ साथ प्रतिशोध की उत्तेजना भी है जिसके चलते वह बहुत से अनर्गल ब्योरों में जा फंसती है। उदाहरण के लिए पेरियार भी विष्णु के घृणित अनैतिक चरित्रा का उल्लेख करते हैं। (दे. पृ. 9-10) राम, दशरथ, कौशल्या आदि के भी छल, पाखंड, अन्याय का वर्णन करते हैं। इसके लिए विभिन्न राम कथाओं और आधुनिक शोधों का उपयोग करते हैं। इस दृष्टि से उनका कार्य विद्वतापूर्ण है लेकिन पूर्व निश्चित या प्रचलित धारणाओं को उलटने की धुन में पेरियार अतिवाद तक जाते हैं। एक उदाहरण देखें। कौशल्या आदि मां कैसे बनीं?पेरियार रामायण इस दृष्टि से अस्मितामूलक अध्ययन की प्रस्तावना भी है। समस्या केवल यह है कि उसमें पौराणिक कथाओं के विखंडन के साथ साथ प्रतिशोध की उत्तेजना भी है जिसके चलते वह बहुत से अनर्गल ब्योरों में जा फंसती है। उदाहरण के लिए पेरियार भी विष्णु के घृणित अनैतिक चरित्रा का उल्लेख करते हैं। (दे. पृ. 9-10) राम, दशरथ, कौशल्या आदि के भी छल, पाखंड, अन्याय का वर्णन करते हैं। इसके लिए विभिन्न राम कथाओं और आधुनिक शोधों का उपयोग करते हैं। इस दृष्टि से उनका कार्य विद्वतापूर्ण है लेकिन पूर्व निश्चित या प्रचलित धारणाओं को उलटने की धुन में पेरियार अतिवाद तक जाते हैं। एक उदाहरण देखें। कौशल्या आदि मां कैसे बनीं? दशरथ से? यज्ञ से? नहीं; दशरथ ने होता, अवयवु और युवध नामक तीन पुरोहितों से ''अपनी तीनों रानियों से सम्भोग करने की प्रार्थना की।'' पुरोहितों ने ''अपने अभिलषित समय तक उनके साथ यथेच्छ सम्भोग करके उन्हें राजा दशरथ को वापस कर दी।'' (पृ. 11) ऐसे वर्णन न तथ्यपूर्ण कहे जायेंगे, न अस्मितामूलक, बल्कि कुत्सापूर्ण कहे जाऐंगे। ब्राह्मणवादी मनुवादी व्यवस्था में दलितों के साथ स्त्रिायां भी उत्पीड़ित हुई हैं। कौशल्या आदि को उनका वृद्ध नपुंसक पति अगर पुरोहितों को समर्पित करता है और पुरोहित उन रानियों से यथेच्छ सम्भोग करते हैं तो इससे स्त्राी की परवशता ही साबित होती है। दलित स्त्राीवाद ने जिसे ढांचे का विकास किया है, वह पेरियार की इस दृष्टि से बहुत अलग है। पेरियार का नजरिया उनके उपशीर्षकों से भी समझ में आता है, ÷दशरथ का कमीनापन' (पृ. 33), ÷सीता की मूर्खता', (पृ. 35), ÷रावण की महानता' (पृ. 38), इत्यादि। इस पक्षधर लेखन की प्रकृति को पूरी तरह समझने के लिए, दशरथ के उक्त कमीनेपन के विपरीत, रावण के प्रति पेरियार की हमदर्दी का उदाहरण भी देखना चाहिए। (कृपया नीचे उद्धृत अंश में अनुवाद की भ्रष्टता के लिए पेरियार को दोषी न समझें!) उनका कहना हैᄉ ''यदि हम रावण के प्रति निर्दिष्ट उस अभियोग का मामला, कि उसने सीता का स्त्राीत्व भ्रष्ट किया। वह उसे छल से ले गया। खुफिया विभाग के किसी अधिकारी को अनुसंधान के लिए सौंप दें। तथा खुफिया विभाग की रिपोर्ट किसी निष्पक्ष न्यायाधीश के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत की जाय और यदि राम को अभियोगी तथा रावण को अभियुक्त समझ कर राम की सुविधानुसार ही मामले का निर्णय किया जायᄉ तो हमें पूर्ण विश्वास है, कि न्यायाधीश रावण के पक्ष में ही अपना यह निर्णय देगा कि रावण निर्दोष तथा निष्कलंक है। उसे डरा व धमका कर निष्प्रयोजन फांस दिया।'' (पृ. 44) जांच अधिकारी, वकील और निष्पक्ष न्यायाधीश की सारी जिम्मेदारियां मानो पेरियार ने खुद ही सम्भाल ली हैं! ऐसी ÷आलोचना' का सामाजिक या सांस्कृतिक दृष्टि से क्या उद्देश्य है? यह शोधपूर्ण हो सकती है, तार्किक नहीं है। शुरू में पेरियार ने कहा थाᄉ ''राम और सीता में किसी प्रकार की कोई दैवी तथा स्वर्गीय शक्ति नहीं है।'' (पृ. 6) लेकिन रावण को निर्दोष तथा निष्कलंक सिद्ध करने के लिए जांच अधिकारी की हैसियत से वे पुराण कथाओं पर विश्वास कर बैठते हैं। उसका व्यभिचार न्यायसंगत है क्योंकि विष्णु ने जलंधर की पत्नी वृंदा का सतीत्व नष्ट किया था, बदले में वृंदा ने शाप दिया था कि ''ठीक यही दुःखद घटना तेरी स्त्राी के प्रति हो।'' (पृ. 52) अगर सीताहरण पूर्वजन्म के अभिशाप के कारण हुआ तो कथा में दैवीतत्व निहित मानना पड़ेगा। तर्क के बदले उत्तेजना से किये गये इस अध्ययन को आस्था की प्रतिलोम राजनीति कहा जा सकता है! यह ÷राजनीति' उत्पीड़ितों के आत्मसम्मान में सहायक नहीं होती। विद्वानों के इस चिन्तन से साधारण दलित लेखकों की समझ इसी बिन्दु पर अलग ही नहीं होती, श्रेष्ठ भी ठहरती है।सवर्ण आस्था हो या दलित आस्था, वे परस्पर पूरक हैं। उसका विकल्प है तार्किक ऐतिहासिक दृष्टिकोण। बुल्के ने रामकथा के सभी रूपों का विस्तृत अवगाहन करके यह सुचिन्तित निष्कर्ष प्रस्तुुत किया है कि ''....विभिन्न नागरिक समुदाय का विभिन्न रामायणों आदि में विश्वास है। इससे स्पष्ट है कि करोड़ों की आबादी वाले भारत में किसी भी ग्रंथ से किसी व्यक्ति या नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आज तक न तो कोई चोट पहुंची है, न अपमान हुआ है और भविष्य में भी न तो चोट पहुंचेगी, न अपमान होगा। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य यह है कि आज तक इस बीमारी में किसी भी व्यक्ति का न हार्ट फेल हुआ न मरा। आदि आदि।.... वास्तव में किसी भी व्यक्ति के विश्वास को न चोट पहुंचती है आर न अपमान होता है, बल्कि कुछ धूर्त राजनीतिक नेता सत्ता हथियाने और सामाजिक नेता झूठा बड़प्पन प्राप्त करने के लिए गरीबों और कमअक्ल लोगों को बरगला कर बवंडर खड़ा करके अपने स्वार्थ की सिद्धि करते हैं। जागृत समाज को चाहिए कि उपरोक्त ऐसे दम्भी नेताओं की बातों में कभी न आयें।.... किसी बात को तब मानिये जब वह बात तर्क की कसौटी पर खरी उतरे।'' (सच्ची रामायण की चाभीः राम कथा, कल्चरल पब्लिशर्स, लखनऊ, प्रथम बार (हिन्दी) सन्‌ 1971, पृ. 60) से? यज्ञ से? नहीं; दशरथ ने होता, अवयवु और युवध नामक तीन पुरोहितों से ''अपनी तीनों रानियों से सम्भोग करने की प्रार्थना की।'' पुरोहितों ने ''अपने अभिलषित समय तक उनके साथ यथेच्छ सम्भोग करके उन्हें राजा दशरथ को वापस कर दी।'' (पृ. 11) ऐसे वर्णन न तथ्यपूर्ण कहे जायेंगे, न अस्मितामूलक, बल्कि कुत्सापूर्ण कहे जाऐंगे। ब्राह्मणवादी मनुवादी व्यवस्था में दलितों के साथ स्त्रिायां भी उत्पीड़ित हुई हैं। कौशल्या आदि को उनका वृद्ध नपुंसक पति अगर पुरोहितों को समर्पित करता है और पुरोहित उन रानियों से यथेच्छ सम्भोग करते हैं तो इससे स्त्राी की परवशता ही साबित होती है। दलित स्त्राीवाद ने जिसे ढांचे का विकास किया है, वह पेरियार की इस दृष्टि से बहुत अलग है। पेरियार का नजरिया उनके उपशीर्षकों से भी समझ में आता है, ÷दशरथ का कमीनापन' (पृ. 33), ÷सीता की मूर्खता', (पृ. 35), ÷रावण की महानता' (पृ. 38), इत्यादि। इस पक्षधर लेखन की प्रकृति को पूरी तरह समझने के लिए, दशरथ के उक्त कमीनेपन के विपरीत, रावण के प्रति पेरियार की हमदर्दी का उदाहरण भी देखना चाहिए। (कृपया नीचे उद्धृत अंश में अनुवाद की भ्रष्टता के लिए पेरियार को दोषी न समझें!) उनका कहना हैᄉ ''यदि हम रावण के प्रति निर्दिष्ट उस अभियोग का मामला, कि उसने सीता का स्त्राीत्व भ्रष्ट किया। वह उसे छल से ले गया। खुफिया विभाग के किसी अधिकारी को अनुसंधान के लिए सौंप दें। तथा खुफिया विभाग की रिपोर्ट किसी निष्पक्ष न्यायाधीश के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत की जाय और यदि राम को अभियोगी तथा रावण को अभियुक्त समझ कर राम की सुविधानुसार ही मामले का निर्णय किया जायᄉ तो हमें पूर्ण विश्वास है, कि न्यायाधीश रावण के पक्ष में ही अपना यह निर्णय देगा कि रावण निर्दोष तथा निष्कलंक है। उसे डरा व धमका कर निष्प्रयोजन फांस दिया।'' (पृ. 44) जांच अधिकारी, वकील और निष्पक्ष न्यायाधीश की सारी जिम्मेदारियां मानो पेरियार ने खुद ही सम्भाल ली हैं! ऐसी ÷आलोचना' का सामाजिक या सांस्कृतिक दृष्टि से क्या उद्देश्य है? यह शोधपूर्ण हो सकती है, तार्किक नहीं है। शुरू में पेरियार ने कहा थाᄉ ''राम और सीता में किसी प्रकार की कोई दैवी तथा स्वर्गीय शक्ति नहीं है।'' (पृ. 6) लेकिन रावण को निर्दोष तथा निष्कलंक सिद्ध करने के लिए जांच अधिकारी की हैसियत से वे पुराण कथाओं पर विश्वास कर बैठते हैं। उसका व्यभिचार न्यायसंगत है क्योंकि विष्णु ने जलंधर की पत्नी वृंदा का सतीत्व नष्ट किया था, बदले में वृंदा ने शाप दिया था कि ''ठीक यही दुःखद घटना तेरी स्त्राी के प्रति हो।'' (पृ. 52) अगर सीताहरण पूर्वजन्म के अभिशाप के कारण हुआ तो कथा में दैवीतत्व निहित मानना पड़ेगा। तर्क के बदले उत्तेजना से किये गये इस अध्ययन को आस्था की प्रतिलोम राजनीति कहा जा सकता है! यह ÷राजनीति' उत्पीड़ितों के आत्मसम्मान में सहायक नहीं होती। विद्वानों के इस चिन्तन से साधारण दलित लेखकों की समझ इसी बिन्दु पर अलग ही नहीं होती, श्रेष्ठ भी ठहरती है।सवर्ण आस्था हो या दलित आस्था, वे परस्पर पूरक हैं। उसका विकल्प है तार्किक ऐतिहासिक दृष्टिकोण। बुल्के ने रामकथा के सभी रूपों का विस्तृत अवगाहन करके यह सुचिन्तित निष्कर्ष प्रस्तुुत किया है कि ''....विभिन्न नागरिक समुदाय का विभिन्न रामायणों आदि में विश्वास है। इससे स्पष्ट है कि करोड़ों की आबादी वाले भारत में किसी भी ग्रंथ से किसी व्यक्ति या नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आज तक न तो कोई चोट पहुंची है, न अपमान हुआ है और भविष्य में भी न तो चोट पहुंचेगी, न अपमान होगा। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य यह है कि आज तक इस बीमारी में किसी भी व्यक्ति का न हार्ट फेल हुआ न मरा। आदि आदि।.... वास्तव में किसी भी व्यक्ति के विश्वास को न चोट पहुंचती है आर न अपमान होता है, बल्कि कुछ धूर्त राजनीतिक नेता सत्ता हथियाने और सामाजिक नेता झूठा बड़प्पन प्राप्त करने के लिए गरीबों और कमअक्ल लोगों को बरगला कर बवंडर खड़ा करके अपने स्वार्थ की सिद्धि करते हैं। जागृत समाज को चाहिए कि उपरोक्त ऐसे दम्भी नेताओं की बातों में कभी न आयें।.... किसी बात को तब मानिये जब वह बात तर्क की कसौटी पर खरी उतरे।'' (सच्ची रामायण की चाभीः राम कथा, कल्चरल पब्लिशर्स, लखनऊ, प्रथम बार (हिन्दी) सन्‌ 1971, पृ. 60)

Sunday, June 27, 2010

शम्बूक हत्या वाला रामराज्य लौटने की कवायद क्यों ?


Ramayana Stories 17
From Spiritual India
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रामायण - उत्तरकाण्ड - ब्राह्मण बालक की मृत्यु
http://www.spiritualindia.org/wiki/Ramayana_Stories_17 से साभार
एक दिन श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे तभी एक बूढ़ा ब्राह्मण अपने मरे हुये पुत्र का शव लेकर राजद्वार पर आया और 'हा पुत्र!' 'हा पुत्र!' कहकर विलाप करते हुये कहने लगा, "मैंने पूर्वजन्म में कौन से पाप किये थे जिससे मुझे अपनी आँखों से अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु देखनी पड़ी। केवल तेरह वर्ष दस महीने और बीस दिन की आयु में ही तू मुझे छोड़कर सिधार गया। मैंने इस जन्में कोई पाप या मिथ्या-भाषण भी नहीं किया। फिर तेरी अकाल मृत्यु क्यों हुई? इस राज्य में ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं हुई। निःसन्देह यह श्रीराम के ही किसी दुष्कर्म का फल है। उनके राज्य में ऐसी दुर्घटना घटी है। यदि श्रीराम ने तुझे जीवित नहीं किया तो हम स्त्री-पुरुष यहीं राजद्वार पर भूखे-प्यासे रहकर अपने प्राण त्याग देंगे। श्रीराम! फिर तुम इस ब्रह्महत्या का पाप लेकर सुखी रहना। राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजा को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि राजा से ही कहीं कोई अपराध हुआ है।" इस प्रकार की बातें करता हुआ वह विलाप करने लगा।
जब श्रीरामचन्द्रजी इस विषय पर मनन कर रहे थे तभी वशिष्ठजी आठ ऋषि-मुनियों के साथ दरबार में पधारे। उनमें नारद जी भी थे। श्री राम ने जब यह समस्या उनके सम्मुख रखी तो नारद जी बोले, "राजन्! जिस कारण से इस बालक की अकाल मृत्यु हुई वह मैं आपको बताता हूँ। सतयुग में केवल ब्राह्मण ही तपस्या किया करते थे। फिर त्रेता के प्रारम्भ में क्षत्रियों को भी तपस्या का अधिकार मिल गया। अन्य वर्णों का तपस्या में रत होना अधर्म है। हे राजन्! निश्‍चय ही आपके राज्य में कोई शूद्र वर्ण का मनुष्य तपस्या कर रहा है, उसी से इस बालक की मृत्यु हुई है। इसलिये आप खोज कराइये कि आपके राज्य में कोई व्यक्‍ति कर्तव्यों की सीमा का उल्लंघन तो नहीं कर रहा। इस बीच ब्राह्मण के इस बालक को सुरक्षित रखने की व्यवस्था कराइये।"
नारदजी की बात सुनकर उन्होंने ऐसा ही किया। एक ओर सेवकों को इस बात का पता लगाने के लिये भेजा कि कोई अवांछित व्यक्‍ति ऐसा कार्य तो नहीं कर रहा जो उसे नहीं करना चाहिये। दूसरी ओर विप्र पुत्र के शरीर की सुरक्षा का प्रबन्ध कराया। वे स्वयं भी पुष्पक विमान में बैठकर ऐसे व्यक्‍ति की खोज में निकल पड़े। पुष्पक उन्हें दक्षिण दिशा में स्थित शैवाल पर्वत पर बने एक सरोवर पर ले गया जहाँ एक तपस्वी नीचे की ओर मुख करके उल्टा लटका हुआ भयंकर तपस्या कर रहा था। उसकी यह विकट तपस्या देख कर उन्होंने पूछा, "हे तपस्वी! तुम कौन हो? किस वर्ण के हो और यह भयंकर तपस्या क्यों कर रहे हो?"
यह सुनकर वह तपस्वी बोले, "महात्मन्! मैं शूद्र योनि से उत्पन्न हूँ और सशरीर स्वर्ग जाने के लिये यह उग्र तपस्या कर रहा हूँ। मेरा नाम शम्बूक है।"

शम्बूक की बात सुनकर रामचन्द्र ने म्यान से तलवार निकालकर उसका सिर काट डाला। जब इन्द्र आदि देवताओं ने महाँ आकर उनकी प्रशंसा की तो श्रीराम बोले, "यदि आप मेरे कार्य को उचित समझते हैं तो उस ब्राह्मण के मृतक पुत्र को जीवित कर दीजिये।" राम के अनुरोध को स्वीकार कर इन्द्र ने विप्र पुत्र को तत्काल जीवित कर दिया।


Saturday, June 26, 2010

भोग सम्भोग एक अवतारी पुरुष का


कृष्ण भारत के आदर्श हैं . प्रेम करना तो कोई उनसे सीखे . अगर उनका मार्ग अपनाया जाये तो समाज से दहेज़ प्रथा की अर्थी उठ जाएगी . उनकी रास लीला और सम्भोग का वर्णन सवर्ण लेखक कैसे करता है , देखो .

http://books.google.co.in/books?id=35o5rtuYOYUC&pg=PA543&lpg=PA543&dq=%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A5%8B%E0%A4%97+%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&source=bl&ots=5EQHCDsDUr&sig=-c2I9ZzG425xH68cPpalLoAr3jg&hl=en&ei=zwEmTIO4HoGUrAfx3qyFBQ&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=10&ved=0CDYQ6AEwCQ#v=onepage&q=%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A5%8B%E0%A4%97%20%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&f=false

Friday, June 25, 2010

मेरे राम …तुम सार्वकालिक अभागे हो।

मेरे राम …
Filed under: राम — गिरिजेश राव
मेरे राम
तुम कसौटी नायक हो।
तुम सार्वकालिक अभागे हो।
000
मेरे सामने जाने कितने बाली हैं


आधी क्या पूरी ताकत हर लेते हैं।
उनसे लड़ना है लेकिन छिपना नहीं है
मैं तुम्हारे समान कायर नहीं।
मेरी कसौटी है
भले न लड़ूँ लेकिन
उनके लिए वृक्ष अवश्य बनूँ
ताकि मेरी आड़ ले
वे मार सकें तुम्हारे जैसे मानवाधिकारों के हनक को।
मैं इस तरह से खुले में खड़ा लड़ता रहता हूँ
देखो कितने घाव खाए हैं-
मैं तुम्हारी तरह कायर नहीं।
000
सीता की अग्नि परीक्षा तो जाने हुई या नहीं
पर अभी भी तुम उसकी कसौटी पर कसे जाते हो
मानो मेरी बात
जाने कितने उदारवादी और (चाहे जो) वादी हो गए
प्रगतिशील हो गए
तुम्हें अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कस कर।
मैं तुम्हें कसता हूँ
खग मृग तरु से सीता का हाल पूछ्ते तुम्हारे आसुओं पर।
सोचता हूँ कित्ता मूरख हूँ।
000
वे अभागे ऋषि महर्षि
अस्थि क्षेत्रों में तप करते
उनका मांस तक कोमल हो जाता था।
सुस्वादु राक्षस भोज।
राम तुम क्यों गए
उन सुविधाभोगियों के लिए लड़ने?
देखो इस वातानुकूलित लाइब्रेरी में
फोर्ड फाउंडेसन की स्कॉलरशिप जेब में डाले
कितने लोग विमर्श कर रहे हैं
इनकी कसौटी पर तुम हमेशा अपने को नकली पाओगे
राम! तुम कितने अभागे हो।
000
जाने किन शक हूणों के चारण कवियों ने
तुमसे शम्बूक वध करा डाला
उसकी कसौटी से तुम्हें दलित साहित्य परख जाता है
तुम उस कसौटी पर हो एक राजमद मत्त सम्राट
घनघोर वर्णवादी।
मैं अपनी कसौटी हाथ लिए भकुवाया रहता हूँ
कि तुम कसने से कुछ बच खुच गए हो
तो कसूँ तुम्हें
निषादराज के आलिंगन में
चखूँ तुम्हें शबरी के जूठे बेरों में।
कसूँ तुम्हें वानर भालुओं के
उछाह भरे शौर्य पर
(दलित शोषित लिखूँ क्या?
लेकिन वे तो इंसान हैं।
बात चीत करते
परिवारी वानर भालुओं की तरह
राक्षसों के आहार नहीं हैं वे)
वह आत्मविश्वास कैसे भर गए थे उनमें
खड़े हो गए वे नरमांस के आदियों के सामने
आहार नहीं समाहार बन, उनका संहार बन।
क्या वह केवल अपनी बीबी को वापस लाने को था
ताकि तुम्हारा पौरुष फिर से गौरव पा सके ?
मेरी कसौटी कुछ अधिक बर्बर है
लेकिन क्या करूँ?
तुम्हें ऐसे न कसूँ तो प्रगतिशील कैसे कहाऊँ!
000
विभीषण को राक्षस राज्य सौंप

सुग्रीव को वानर राज्य सौंप
निषादराज को जंगल, नदी, वन का दायित्त्व सौंप
तुम दरिद्र!
ऐश्वर्य पा इतने बौरा गए!
हजारो अश्वमेध यज्ञ कर गए?
राम !
बड़ा विरोधाभासी चरित्र है तुम्हारा!!
चरित्र की कसौटी पर तुम ‘फेल’ हो।
000
लांछ्न पर सीता को हकाल दिए
कैसी पीड़ा थी राम!
तुम्हारी रातें कैसी थीं राम
भोग विलास आनन्द कैसे थे राम!
सीता त्याग के बाद?
मुआफ करना मुझे यह सब पूछ्ना है
क्यों कि किसी सिरफिरे ने कहा है
तुमने ग्यारह हजार साल राज किया
सीता त्याग वाली बात उसी ने बताई थी
सच ही कहा होगा।
तुम नारी विरोधी !
मेरी कसौटी झूठ की कसौटी भले सही
तुम्हें कसना तो होगा ही।
(कोई मुझे बकवासी कह रहा है।)
000
तुम पाखंडी!
इतने निस्पृह अनासक्त थे तो
सीता भू-प्रवेश के बाद
लक्ष्मण को क्यों त्याग दिए?
स्वयं आत्महत्या कर गए
सरयू में छलांग लगा
कैसी कसौटी थी वह राम ?
मुझे हैरानी होती है
कोई तुम्हारी आत्महत्या की बात क्यों नहीं करता?
000
मेरे राम
कसौटियाँ सेलेक्टिव हैं
तुम हमेशा इन पर कसे जाओगे।
तुम्हारे जन्मस्थान के कसौटी स्तम्भ नकली थे
ढहा दिए गए।

इस ठिठुरती सर्दी में
सम्राट राम !
किसी गरीब रिक्शेवाले के साथ
तुम भी खुले में सो जाओगे।
मेरी इस कविता पर कुछ लोग हँसेंगे
कहेंगे इसे इसलिए दु:ख है कि
सम्राट और रिक्शेवाला एक साथ क्यों हैं?
मेरी कसौटी का संहार
मेरी बकवास और कंफ्यूजन का अंत
हर सुबह होता है राम
जब मैं सुनता हूँ
जम्हाई लेते रिक्शेवाले के मुँह से
पहली आवाज़
हे राम
मेरे राम . . .
http://girijeshrao.wordpress.com/category/%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%ae/
गिरिजेश राव से साभार

Thursday, June 24, 2010

गीता : एक ‘शरारतपूर्ण पुस्तक‘

भारत का शायद ही कोई ऐसा बुद्धिजीवी होगा जिसने डा. भीमराव अम्बेडकर की भांति गीता को एक ‘शरारतपूर्ण पुस्तक‘ कहा हो। सभी हिन्दू नेतागण-क्या समाज सुधारक और क्या राजनीतिज्ञ-गीता की प्रशंसा के पुल ही बांधते चले गये। विचारणीय बात तो यह है कि गीता के उपदेशों का अनुसरण करते हुये समाज कैसा निर्मित हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर श्री विवेकानंद के यह शब्द देते हैं-‘‘एक देश जहां लाखों लोगों के पास खाने को कुछ नहीं है और जहां कुछ हजार पुण्य-व्यक्ति तथा ब्राह्मण गरीबों का खून चूसते है और उनके लिए कुछ भी नहीं करते। हिन्दोस्तान एक देश नहीं है जिन्दा नरक है। यह धर्म है या मौत का नाच।‘‘ -फ्ऱंट लाईन, दिनांक सितम्बर 18, 1993, पृष्ठ 11
यह अंश एल. आर. बाली,संपादक-भीम पत्रिका, की पुस्तक ‘हिन्दूइज़्म : धर्म या कलंक‘ से साभार उद्धृत है। मिलने का पता : ईएस-393 ए, आबादपुरा, जालंधर 144003